ग़रीबी में चॉइस नहीं, इनके ज़िंदगी की कोई प्राइस नहीं?

किसी दुकान में होते तो कोई कीमत थी, हम ग़रीब हैं साहब, कूड़े की मानिंद ही समझिए!

सर्दी है न? थोड़ी नहीं बहुत ज़्यादा है? सोचो आप किसी सफ़र में हो और ग़रीब हो, अपनी ट्रेन का इंतज़ार कर रहे हो, आप प्लेटफॉर्म पर ही सो जाते हो, आपके साथ छोटे छोटे बच्चे हैं, पहले से ही आप ठंड से बेहाल हैं फिर…

कुछ लोग आएं और आपके ऊपर ठंडा पानी फेंक दें, आपके ऊपर ही नहीं बल्कि आपके नन्हें बच्चों के ऊपर भी!

क्या बीतेगा उन बच्चों और आप पर? और इसमें आपका कसूर सिर्फ़ इतना था कि…

आप ग़रीब थे!

यही सब हुआ है लखनऊ के चारबाग़ स्टेशन पर, जहां पर सफाईकर्मियों ने यह असंवेदनशील हरक़त की है। सवाल ये है कि क्या इन सफाईकर्मियों को पूरी ऑथोरिटी दी गई है ऐसा करने की या इशारों का खेल है जिसका शिकार अंततः ग़रीब ही होता है।

ज़रा सोचिए! भारत की गरीबी को दूर करने का वायदा कर सत्ता पर शासन करना ही इनका मुख्य ध्येय है। इनका क्या इन जैसी सभी सरकारों ने यही किया और कर रहे है। जब भी बात ग़रीब की आती है, कोई विकल्प सामने नहीं रहता!

ग़रीबी मजबूर कर देती है कि

ऐसे- ऐसे ज़ुल्म सहे जायें, कुछ भी हो मगर कोई शब्द भी न कहें जायें, यही ग़रीबी है जो ज़ुबां सिल देती है, यही ग़रीबी है जो ज़ुबां सिल देती है।

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